Sunday, August 30, 2009

कहानी * उपहार

बादलों की ओट से चाँद बाहर निकल आया था।निर्मल दुधिया चांदनी पूरे आँगन में पसरी हुई थी। दो बहूएँ और तीन बेटे मोहनीदेवी को घेरे बैठे थे जो माची पर अलसाई हुई सी पड़ी थी। झुर्रीदार पोपले चेहरे पर तनाव व वेदना की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रहीं थी।
-के बजग्या,बेटा? -बुढिया ने मरे स्वर में पूछा।
-अम्मा, दस बज रहे है। -बड़का बेटा रघु बोला।
-दस बजे क़ बारह, मन्ने तो मौत नी आवे! -बुढिया बड़बडाई। वह टकटकी लगाकर चाँद को निहारने लगी। अचानक आँखें भरभरा आयीं । -आज तुम्हारा बापू जिंदा होता तो में यूँ घुट-घुट कर न मरती। -बुढिया ने पल्लू से आँखें पोंछते हुए कहा।
- अम्मा, तुम ऐसा क्यों सोचती हो? क्या हम तुम्हारे दुश्मन हैं!
- नहीं रे! दुश्मन तो मैं हूँ तुम्हारी। - कहकर बुढिया ने करवट बदली। तभी खांसी का दौर आगया। बुढिया छटपटाने लगी। बड़ी बहू दवा की शीशी ले आई।
-लो माँसा , दवा पी लो।
-अब रहने दे ,बींदणी! लागे है काळ आग्यो!
-इयाँ क्यूं सोचो हो माँ सा, थे जल्दी ठीक हू जास्यो। बहू ने कहा लेकिन बुढिया ने सुना अनसुना कर दिया। सभी बेटे हैरान परेशानथे। वे अम्मा को बारबार समझा रहे थे। पर बुढिया पर उनकी बातों का कोई असर नहीं हुआ।
- मैं मौत सूं कोनी डरूं। बा तो एक दिन सें ने आणी ही है। फेर मैं तो घणी जी ली बेटा! -कहते कहते बुढिया का गला भर आया।
- फ़िर अम्मा, तुम्हें किस बात की चिंता है? क्यों परेशान हो रही हो! देखो तुम्हें परेशान देखकर हम सब कितने दुखी हैं! - इस बार छोटा बेटा झूमर बोला।
-बेटा, मेरी परेशानी तुम सब जानते हो। गुवाडियों का काम बंद कर तुमने अच्छा नहीं किया । बाप-दादा री रीत तोड़कर थे चोखो काम कोनी करयो। थे बांरो घोर अपमान करयो है । - कहतेकहते बुढिया हांफने लगी। कुछ सामान्य हुई तो रघु बोला- अम्मा, अब यह सब सम्भव नहीं है और न ही उचित। तुम्ही बताओ, गुवाडियों का काम करेगा कौन? मैं तो सरकारी नौकर हूँ। झूमर सैलून चलाता है।
- तो के हुयो, छोटू तो है। दिनभर बैठ्यो मुफ्त रा रोट तोड़े है! बींदण्या दिनभर घर में बैठी के करसी! - अम्मा ने फ़िर हाम्फते हुए कहा। उनकी साँस जोरजोर से चलने लगी।
-घर की बहुएँ जजमानों के यहाँ काम कराने कभी न जायेंगी। - झूमर ने तमक कर कहा- ham kyun दूसरों के तलवे चाटें? हम दो भाई तो कमा ही रहें हैं। छोटू को भी कोई न कोई धंधा मिल ही जाएगा।
- झूमर ठीक कहता है अम्मा!- रघु ने समझाते हुए कहा-तब की बात और थी। उस समय मान था, सम्मान था, मर्यादा थी। और आज ... अम्मा, अब तुम्हें क्या बताएं! पैसे ने इंसान को हैवान बना दिया है। रोज ही तो ऐसे किस्से होते हैं ... । - कहते कहते रघु अचानक रुक गया।
-चुप रहो, नालायकों! - बुढिया बीच में ही चीख उठी । -जजमानों का अपमान करते कुछ तो शर्म करो! जजमान देवता होता है। उन्होंने क्या कुछ नहीं दिया हमें!
-पर अम्मा, उन्होंने हमारी मदद फोकट में तो नहीं की? हमारा पूरा परिवार जजमानों की सेवा में रात-दिन लगा रहता था।
छोटू की बात पूरी होने से पहले ही बुढिया को खांसी का फ़िर दौरा पड़ा। इस बार खून की कै भी हुई। बेटे-बहु बुढिया को संभालने में जुट गए। हालत में सुधार न देख अगले दिन रघु ने अपने मामा को बुला लिया।
- कैसी हो बहन !
- कौन, रामेसरा? - बुढिया ने पहचान ने का उपक्रम करते हुए पूछा।
-हाँ बहन, यह क्या हालत बना राखी है!
- अब तुम आगये हो तो मौत भी आ जायेगी। - बुढिया की आँखें गीली होने लगी -ये लोग शान्ति से मुझे मरने भी नहीं देते। खुश्क आंसू पोपले गालों पर लुढ़कने लगे।
- मैं इन्हें समझाऊँगा। पर एक बात जरूर कहूंगा, बहन।समय काफी बदल गया है। न तो अब वे जजमान रहे ना वो कारिंदे। दोनों के सोच में असामान्य विकृतियाँ आ गई है।
बहन के हालत देख कर रामेश्वर दुखी हो गया। वह बोला- देखो , तुम्हारी अम्मा अब कुछ घंटों की ही मेहमान है। शास्त्रों में लिखा है कि मरने वाले कि अन्तिम इच्छा पूरी कि जानी चाहिए।
-मामा, अम्मा बहुत अच्छी है। उसने कितने कष्ट उठा कर हमें पाला -पोसा और बड़ा किया। हमारी शादियाँ की! हम यह सब कैसे भूल सकते हैं! अम्मा के लिए हम कुछ भी कराने को तैयार हैं .... पर उनकी यह जिद ...
- अब माननी ही पड़ेगी ... झूठ मूठ ही सही । - मामा ने कहा ।
- क्या मतलब , मामा?
- मतलब साफ़ है। अम्मा के सामने तुम लोगों को गुवाड़ी का काम पुनः शुरू कराने की बात स्वीकारनी होगी
ताकि वह शान्ति से मर सके।
- हम अम्मा के सामने कभी झूठ नहीं बोले, अब आखिरी समय में यह पाप क्यों करवा रहे हैं, मामा ?- रघु ने कहा।
अचानक रघु की पत्नी बोली-झूठ बोलने तो अच्छा है , हम अम्मा की बात ही मान लें। कोई आसमान तो टूटे पड़ेगा नहीं!
- तुम ठीक कहती हो, भाभी। हम अम्मा को धोखा नहीं दे सकते। उसके विचार कैसे ही हो, आख़िर वह हमारी मां है! उसकी कोख से हमने जनम लिया है! एक छोटी सी बात के लिए हम आखिरी समय उसे कैसे अशांत कर सकते हैं? - छोटू जो काफी देर से चुपचाप बैठा था , बोला।
सहसा अम्मा की खांसी में उलझने की आवाजें आने लगी। सभी उधर लपके। अम्मा का खांसते-खांसते बुरा हाल था। पूरा चेहरा लाल हो गया। वह हाथ-पाँव मारने लगी। शरीर दोहरा हो गया।
मामा ने छोटू को डाक्टर बुलाने भेज दिया। बहुएँ अम्मा को संभालने में जुटी थीं। तभी डॉक्टर आगया। अम्मा की हालत देख वह निराश सा दिखाई देने लगा।
-अब भगवान पर ही भरोसा करें। - डॉक्टर अपना बैग संभालने लगा।
-कुछ तो कीजिये, डाक्टर साहब।- रघु ने अनुनय-विनय की ।
डॉक्टर ने पल्स देखने के बाद एक इंजेक्शन अम्मा को लगा दिया। इसके के बाद वह बिना कुछ कहे चला गया।
खांसी का दौर थम चुका था । अम्मा कुछ कहना चाहती थी।सब अम्मा पर झुक गए।
अम्मा के मुंह से बोल नहीं निकल रहे थे। वह अपनी बेबसी पर आँखें बंद किए आंसू बहाने लगी। जेहन में जैसे तूफ़ान मचल रहा था।
- अम्मा, आँखें खोलो। -रघु रो पड़ा। - देखो हम सब ने तुम्हारी बात मान ली है। गुवाडियों का काम हम कल se ही शुरू कर देंगें।
- नहीं बेटे, नहीं। अब ऐसा कभी न करना।- अम्मा ने हाथ हिलाकर मना करते हुए कहा-







Saturday, August 29, 2009

समझौता

दोनों भाई लड़े-भिड़े। पंचायत बैठी । लोगो ने , पास पडौसियों ने बहुत समझाया पर कोई परिणाम नही निकला। अंततः पुलिस आई। दोनों के पाँच-पाँच हज़ार की चपत लगी और समझौता हो गया।
अतुल जैन

Friday, August 28, 2009

गम रो पर्वत , तम रो झरणो
दोरो लागे अठै ठहरणो।
कातिल आंख्यां बोझल सांसा
ख़ुद सूं ही घबराणो , डरणो ।
सांच नै टालो झूठ निबावो
नही पड़े लो फांसी चढ़णो।
लोग तनै पागल समझैला
मिनखप्णे सूं प्रेम न करणो
atul jain





Saturday, August 8, 2009

मुल्क्या मतना

सेठ धनीराम कई बरस बाद परदेस सूं गाँव आया। गुमास्तो टेसन पर सामो गयो। रामा श्यामा करी। सेठजी घर रा हालचाल पूछ्या-घर में सै ठीकसर तो है नीं ?

हाँ , सेठा, और तो सै ठीक है पण थांरो लाडलो गंडकडॉ मरग्यो!

बो तो मोटो ताजो हो , इयाँ कियां मरग्यो?

सेठा , बो थांरे घोड़ेरो मांस खा लियो हो!

तो के म्हारो घोड़ों भी मरग्यो?

सेठा , कोई जिनावर घास फूस बिन्या जिन्दों रह सकै है के?

पण , मैं तो मोकलो घासफूस छोड़ र गयो हो?

सेठा , बो तो थांरी माँ रे ही काम आग्यो। और सै ठीक है सेठा ।

हे भगवान् ! म्हारो कुत्तो मरग्यो, घोड़ों मरग्यो, माँ मरगी

अ र तूं कैरैयो है सै ठीक है! साला ! पण आ तो बता म्हारी माँ रे के हुग्यो हो?

सेठा, बै आपरे पोते पर हियो दे दियो हो ! और तो सै ठीक है सेठा!

तो के म्हारो इक्लोतो छोरो भी कोनी रैयो?

सेठा, नान्हो टाबर माँ बिन्या कियां रह णे सकै?

तो म्हारी लुगाई भी कोनी रई के?

सेठा, म्हारे मुंडे सूं कियां केवूं? और सै ठीक है!

सेठाणी ने के हुग्यो हो जो बा मन्ने एक्लो छोड़ र चलगी ?

सेठा, बिरखा में बै हेली में ही दब्ग्या

तो हेली भी पड़ गी?

हाँ सेठा, और तो सै ठीक है , म्हारे माथे न छोड़!

मारवाडी डाइजेस्ट से साभार

Monday, August 3, 2009

एक फूल अ र सूळ हजार

ऊंचे लोगाँ सूं व्योहार

मतना सुपनों देखि यार।

ओ गेलो है काँटा भरियो

एक फूल अ र सूळ हज़ार।

गर्दन , आंख्यां, कमर झुकगी

जो भी आया आँ दरबार।

अल्दा बाट लेणे-देणे रा

किंयाँ करेलो तूं ब्योपार।

अब तो जा तूं काल आईजे

सूटकेस भर ल्या उपहार !

माया जालान

Sunday, August 2, 2009

आज रो मौसम

आज रो मौसम नशिलो देख्ल्यो

मैक रियो आकास गीलो , देख्ल्यो!

थांरे हाथां मेंदी के रची

खिल उठ्यो सावन सजिलो देखलो!

पुरवाई धीमे सी कानां आ कही

उडीक रियो कोई छबीलो देख्ल्यो!

चाँद ने गिटग्यो ज्यूँ कोई साब्तो

आपरो जोबन हठीलो देख्ल्यो!

प्रियदर्शिनी

Saturday, August 1, 2009

पोटली

अमरा मरता म्हे देख्या , भाग्या देख्या सूर

आगे सूं पाछा भला , नाम भलो लह्टूर ।

बांका रहिज्यो बालमा, बांका आदर जोग

बाँकी वन री लाकडी, काट सकै नीं कोय।

तलवारां ऊंची टंगी, लाग्यो कटारयाँ काट

कवचां लागी लेदरी , गई दीम्कां चाट।

कागा तन मत खाइयों, चुन-चुन खाइयो मांस

दो नेणां मत खाइयों पिया मिलन जी आस!

संतोष दाधीच